हिन्दुओं और जैनों के उपासनास्थल को मन्दिर कहते हैं। यह अराधना और पूजा-अर्चना के लिए निश्चित की हुई जगह या देवस्थान है। यानी जिस जगह किसी आराध्य देव के प्रति ध्यान या चिंतन किया जाए या वहां मूर्ति इत्यादि रखकर पूजा-अर्चना की जाए उसे मन्दिर कहते हैं। मन्दिर का शाब्दिक अर्थ 'घर' है। वस्तुतः सही शब्द 'देवमन्दिर', 'शिवमन्दिर', 'कालीमन्दिर' आदि हैं।
और मठ वह स्थान है जहां किसी सम्प्रदाय, धर्म या परंपरा विशेष में आस्था रखने वाले शिष्य आचार्य या धर्मगुरु अपने सम्प्रदाय के संरक्षण और संवर्द्धन के उद्देश्य से धर्म ग्रन्थों पर विचार विमर्श करते हैं या उनकी व्याख्या करते हैं जिससे उस सम्प्रदाय के मानने वालों का हित हो और उन्हें पता चल सके कि उनके धर्म में क्या है। उदाहरण के लिए बौद्ध विहारों की तुलना हिन्दू मठों या ईसाई मोनेस्ट्रीज़ से की जा सकती है। लेकिन 'मठ' शब्द का प्रयोग शंकराचार्य के काल यानी सातवीं या आठवीं शताब्दी से शुरु हुआ माना जाता है।
पौराणिक सन्दर्भ में देखा जाय तो मन्दिरों का निर्माण, उनकी संख्या और बनावट के विषय में यही कहा जा सकता है कि, यद्यपि मन्दिरों का आस्तित्व था तो सही किन्तु उनका उल्लेख इतना कम है कि, निशिचत रूप से यह कहा जा सकता है कि, लोकजीवन में मन्दिरों का महत्त्व उतना नहीं था जितना आत्मचिन्तन और मनन का। अधिकांश मन्दिर व्यक्तिगत उपासना स्थलों के रूप में थे। यही कारण जान पड़ता है कि, मन्दिरों के आस्तित्व का सार्वजनिक महत्त्व दृशिटगोचर नहीं होता है। रामायण काल में श्रीराम अपने महल में ही एक विशेष भाग में अपने पूर्वजों की प्रतिमाओं के समक्ष समय-समय पर उनके आशीर्वाद और मार्गदर्शन के निमित्त प्रार्थना करने जाते थे और स्वयंवर से पूर्व सीता भी अपनी सखियों और दासियों के साथ गौरी पूजा के लियेे राजा जनक के महलों की वाटिका में ही सिथत गौरी मंदिर में पूजा के लिये जाती थीं, किन्तु अयोध्या या जनकपुरी में किसी अन्य मन्दिर का उल्लेख नहीं होना उस काल में मन्दिरों के असितत्व के संबन्ध में इंगित करता है। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि, राजा जनक को वैष्णव अर्थात विष्णु भक्त बताया गया है किन्तु उनके प्रासाद या वाटिका में गौरी का मंदिर किस तथ्य की ओर इंगित करता है? क्योंकि ऐसे शिव मंदिर तो हैं जिनमें सती अथवा शिव परिवार के अन्य सदस्य नहीं है किन्तु केवल सती अथवा पार्वती का कोई भी मंदिर नहीं है। कामरूप कामाख्या, हिंगलाज, ज्वाला, नैना और वैष्णोदेवी आदि शक्तिपीठों को सती मंदिर कहा जावे तो बात और है। इसी प्रकार महाभारत में यधपि बहुचर्चित किन्तु मात्र दो घटनाओं में कृष्ण के साथ रूक्मणी और अर्जुन के साथ सुभद्रा के भागने के समय दोनों ही नायिकाओं द्वारा देवी पूजा के लिये वन में स्थित गौरी माता (माता पार्वती) के मन्दिर की चर्चा है।
गुप्तकाल (चौथी से छठी शताब्दि) में मन्दिरों के निर्माण का उत्तरोत्तर विकास दृष्टिगोचर होता है। पहले लकड़ी के मन्दिर बनते थे या बनते होंगे लेकिन जल्दी ही भारत के अनेक स्थानों पर पत्थर और र्इंट से मन्दिर बनने लगे। 7वीं शताब्दि तक देश के आर्य संस्कृति वाले भागों में पत्थरों से मंदिरों का निर्माण होना पाया गया है। चौथी से छठी शताब्दि में गुप्तकाल में मन्दिरों का निर्माण बहुत द्रुत गति से हुआ। मूल रूप से हिन्दू मन्दिरों की शैली बौद्ध मन्दिरों से ली गयी होगी जैसा कि उस समय के पुराने मन्दिरो में मूर्तियों को मन्दिर के मध्य में रखा होना पाया गया है और जिनमें बौद्ध स्तूपों की भांति परिक्रमा मार्ग हुआ करता था। गुप्तकालीन बचे हुए लगभग सभी मन्दिर अपेक्छताकृत छोटे हैं जिनमें काफी मोटा और मजबूत कारीगरी किया हुआ एक छोटा केन्द्रीय कक्छ है, जो या तो मुख्य द्वार पर या भवन के चारों ओर बरामदे से युद्ध है। गुप्तकालीन आरम्भिक मन्दिर, उदाहरणार्थ सांची के बौद्ध मन्दिरों की छत सपाट है; तथापि मन्दिरों की उत्तर भारतीय शिखर शैली भी इस काल में ही विकसित हुयी और शनै: शनै: इस शिखर की ऊंचार्इ बढती रही। 7वीं शताब्दी में बोध गया में निर्मित बौद्ध मन्दिर की बनावट और ऊंचा शिखर गुप्तकालीन भवन निर्माण शैली के चरमोत्कर्ष का प्रतिनिधित्व करता है।
बौद्ध और जैन पंथियों द्वारा धार्मिक उद्देश्यों के निमित्त कृत्रिम गुफाओं का प्रयोग किया जाता था और हिन्दू धर्मावलंबियों द्वारा भी इसे आत्मसात कर लिया गया था। फिर भी हिन्दुओं द्वारा गुफाओं में निर्मित मंदिर तुलनात्मक रूप से बहुत कम हैं और गुप्तकाल से पूर्व का तो कोर्इ भी साक्ष्य इस संबन्ध में नहीं पाया जाता है। गुफा मन्दिरों और शिलाओं को काटकर बनाये गये मन्दिरों के संबंध में अधिकतम जानकारी जुटाने का प्रयास करते हुए हम जितने स्थानों का पता लगा सके वो पृथक सूची में सलंग्न की है। मद्रास (वर्तमान 'चेन्नई') के दक्षिण में पल्लवों के स्थान महाबलिपुरम् में, 7वीं शताब्दि में निर्मित अनेक छोटे मन्दिर हैं जो चट्टानों को काटकर बनाये गये हैं और जो तमिल क्षेत्र में तत्कालीन धार्मिक भवनों का प्रतिनिधित्व करते हैं।
मन्दिरों का आस्तित्व और उनकी भव्यता गुप्त राजवंश के समय से देखने को मिलती है। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि गुप्त काल से हिन्दू मंदिरों का महत्त्व और उनके आकार में उल्लेखनीय विस्तार हुआ तथा उनकी बनावट पर स्थानीय वास्तुकला का विशेष प्रभाव पड़ा। उत्तरी भारत में हिन्दू मंदिरों की उत्कृष्टता उड़ीसा तथा उत्तरी मध्यप्रदेश के खजुराहो में देखने को मिलती है। उड़ीसा के भुवनेष्वर में सिथत लगभग 1000 वर्ष पुराना लिंगराजा का मन्दिर वास्तुकला का सर्वोत्कृष्ट उदाहरण है। हालांकि, 13वीं शताब्दि में निर्मित कोणार्क का सूर्य मंदिर इस क्षेत्र का सबसे बड़ा और विश्वविख्यात मंदिर है। इसका शिखर इसके आरंम्भिक दिनों में ही टूट गया था और आज केवल प्रार्थना स्थल ही शेष बचा है। काल और वास्तु के दृष्टिकोण से खजुराहो के सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण मन्दिर 11वीं शताब्दी में बनाये गये थे। गुजरात और राजस्थान में भी वास्तु के स्वतन्त्र शैली वाले अच्छे मन्दिरों का निर्माण हुआ किन्तु उनके अवशेष उड़ीसा और खजुराहो की अपेक्षा कम आकर्षक हैं। प्रथम दशाब्दी के अन्त में वास्तु की दक्षिण भारतीय शैली तंजौर (प्राचीन नाम तंजावुर) के राजराजेश्वर मंदिर के निर्माण के समय अपने चरम पर पहुंच गयी थी।
Source